रोज़े का आध्यात्मिक भाव
RAAMISH SIDDIQUI – DAINIK JAGRAN – Opinion – 15, May, 2018
रोज़ा इस्लाम की सबसे उत्कृष्ट इबादत मानी गई है, जिसका पालन प्रत्येक मुसलमान को रमज़ान के पूरे महीने करना होता है। रोज़े में व्यक्ति सूर्योदय से सूर्यास्त तक स्वयं को भोजन-पानी के सेवन से दूर रख ख़ुदा के आदेश का पालन करता है। रमज़ान का सबसे बड़ा लक्ष्य व्यक्ति को भौतिकवाद से निकालकर आध्यात्मिकता के पथ पर अग्रसर करना है, ताकि वह इस दुनिया में एक सफल जीवन गुजार पाए। रमज़ान में एक व्यक्ति अपना ज़्यादा से ज़्यादा समय ख़ुदा की इबादत में लगाता है। रोज़ा इंसान के अंदर कृतज्ञता का भाव बढ़ाता है। थोड़े समय के लिए जब वह अपना खाना-पीना छोड़ देता है, तो उसे यह एहसास होता है कि जीवन ख़ुदा की देन है। सूर्यास्त के समय जब वह भोजन-पानी ग्रहण करता है, तब वह यह समझ पाता है कि कैसे ख़ुदा सदियों से निरंतर इंसान को सब कुछ प्रदान करता चला आ रहा है। यह भाव उसमें ईश्वर के प्रति कई गुना आभार पैदा करता है।
ख़ुदा सदियों से निरंतर इंसान को सब कुछ प्रदान करता चला आ रहा है। यह भाव उसमें ईश्वर के प्रति कई गुना आभार पैदा करता है।
रमज़ान इंसान को नैतिकता के साथ जीना सिखाता है। जीवन की बुनियादी चीजों से दूर रह कर रोजा आत्मसंयम और सहनशीलता का पाठ पढ़ाता है। जैसे तेज भागती गाड़ी को एक गति अवरोधक चालक को काबू करने का संकेत देता है, उसी प्रकार रमज़ान व्यक्ति के जीवन में काम करता है। रमज़ान का एक महीना व्यक्ति को पूरे साल का प्रशिक्षण देने के लिए आता है। वह जीवन के पथ पर बेकाबू भागने के लिए नहीं आया है, बल्कि जीवन की महत्ता को समझने के लिए भेजा गया है। रोज़ा व्यक्ति की इबादत की क्षमता को ही बढ़ाने का दूसरा नाम है। रमज़ान में रोजेदार ख़ुदा का ज़्यादा से ज़्यादा स्मरण करने की कोशिश करता है और अपने से यह वादा करता है कि वह अपने जीवन को आध्यात्मिक बनाएगा। साथ ही, वह समाज का एक लेने वाला सदस्य न बनकर देने वाला सदस्य बनेगा।