इसे कहते हैं सही मायने में कुर्बानी और ईद मनाना

पैगंबर मुहम्मद साहब से एक बार उनके एक साथी ने पूछा, ‘ए खुदा के नबी कुर्बानी क्या है?’ इस पर पैगंबर साहब ने उत्तर दिया: ‘यह आपके पूर्वज, पैगंबर इब्राहिम की परंपरा है।’ कुर्बानी की शुरुआत पैगंबर इब्राहिम से हुई, जो पैगंबर मुहम्मद साहब से लगभग 2,000 साल पहले आए थे।

पैगंबर इब्राहिम इराक में पैदा हुए थे। उसके बाद वे अपनी पत्नी हाजरा और बच्चे इस्माइल को लेकर अरब के रेगिस्तानी इलाके मक्का में आ गए जहां उन्होंने अपने परिवार को एक रेगिस्तान में आबाद कर दिया। यह उनकी असली कुर्बानी थी। उनके द्वारा दी गई जानवर की कुर्बानी तो महज प्रतीक भर थी। असल बात तो अपने बेटे को रेगिस्तान में बसाना था। जिसके पीछे का मकसद एक ऐसी पीढ़ी की शुरुआत करना था जो प्रकृति के माहौल में पैदा हो और शहरों के अनुबंधन से परे हो। ऐसी पीढ़ी को तैयार करने के लिए उस वक्त एक कुर्बानी की जरूरत थी। इसके बाद जो पीढ़ी तैयार हुई उसे एक ब्रिटिश इतिहासकार ने अपने शब्दों में ‘नेशन ऑफ हीरो’ कहा है। इसी दिन को याद करते हुए विश्वभर में मुस्लिम समाज में जानवर की कुर्बानी प्रतीकात्मक तौर पर दी जाती है लेकिन आज यह कुर्बानी महज एक रीति रिवाज बन कर रह गई है जहां इसकी असल  खत्म हो चुकी है।

आज लोगों में एक होड़ दिखती है के कौन कितने बकरे लाएगा, प्रत्येक वर्ष ईद-उल-अदहा के समय समाचार पत्रों में पढ़ने को मिलता है कि किसी ने एक लाख का बकरा खरीदा तो किसी ने दो लाख का। कुर्बानी का यह अर्थ बिलकुल नहीं था जैसे आज हमें ईद-उल-अदहा के दिन अपने चारों ओर देखने को मिलता है। कुर्बानी हमारे जीवन के हर पहलू से जुड़ी हुई है। जब एक व्यक्ति कुछ बलिदान करने के लिए तैयार होता है तभी दूसरे व्यक्तियों को आगे काम करने का मौका मिलता है।

जैसे पैगंबर इब्राहिम ने कुर्बानी दी थी राष्ट्र निर्माण के लिए वैसी ही कुर्बानी आज प्रत्येक ईद मनाने वाले के लिए आवश्यक है जहां वे राष्ट्र निर्माण में उपयोगी साबित हो पाएं।

जब हम सामाजिक कार्य करते हैं, तो हम दूसरों के लिए खुद को समर्पित करते हैं। यह त्याग का एक रूप है, जहां समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए हम अपने निजी हितों को पीछे छोड़ देते हैं। ईद का मतलब इस्लाम में अपने आध्यात्मिक भाव को पुनर्जीवित करना है। मस्जिदों में ईद के दिन दिया जाने वाला धर्मोपदेश या खुत्बा मुसलमानों को पुर्नजीवित करने के उद्देश्य से ही रखा गया था ना कि राजनीतिक, ताकि वे समाज की भलाई के लिए खुद को समर्पित करें। ईद की नमाज़ में दिए गए उपदेश केवल उन मूल्यों की बात करते हैं जिनके द्वारा पैगंबर और उनके साथियों ने अपने अंदर के आध्यात्म को मजबूत किया।

ईद हमें विनम्रता के महत्व की याद दिलाती है। जब हम नमाज़ से पहले और बाद में ‘अल्लाहु अकबर’ कहते हैं, तो हमें इसके अंदर के छिपे भाव को समझना आवश्यक है। ‘अल्लाहु अकबर’ का अर्थ होता है ‘ईश्वर महान है, मैं महान नहीं हूँ।’ जिस समय हम दिल से यह पढ़ते हैं तो हमें पूर्णतः यह भी मानना जरूरी हो जाता है कि जिस सृष्टि का उसने निर्माण किया वे भी उसकी महानता का एक हिस्सा है।

मतभेद जीवन का एक हिस्सा हैं और वे हमेशा परिवारों, समाजों और राष्ट्रों के भीतर बने रहेंगे। हम उन्हें पूर्णतः कभी समाप्त नहीं कर सकते, लेकिन हम अपने मतभेदों के बावजूद लोगों के साथ रहना और उनका सम्मान करना जरूर सीख सकते हैं। ईद हर व्यक्ति को आपसी सम्मान की बात सिखाती है, तभी हम एक बेहतर समाज बनाने की उम्मीद कर सकते हैं।

जैसे पैगंबर इब्राहिम ने कुर्बानी दी थी राष्ट्र निर्माण के लिए वैसी ही कुर्बानी आज प्रत्येक ईद मनाने वाले के लिए आवश्यक है जहां वे राष्ट्र निर्माण में उपयोगी साबित हो पाएं। पैगंबर इब्राहिम रेगिस्तान में रह कर भी सकारात्मक रहे। एक सकारात्मक समाज ही राष्ट्र निर्माण में उपयोगी साबित हो सकता है जिसका अर्थ है घृणा, प्रतिशोध और क्रोध से रहित समाज, इन सब नकरात्मक भावनओं को खत्म करना ही असल ईद है।