अब वक्‍त है अगली इबादत का

इस वर्ष जो रमज़ान आया है वह बेहद विशेष है। आज संपूर्ण विश्व कोरोना वायरस की चपेट में है। आज से पहले तक जो रोज़े होते आए थे उनमें या तो इफ्तार पार्टियों की धूम दिखती थी या बाजारों में खरीददारी की, जिसके करण रोज़े का असल अर्थ कहीं खो जाता था। यह संभवतः पहली बार है जब इस पीढ़ी को रमज़ान के अर्थ को सही तरीके से समझने और उसका अभ्यास करने का अवसर मिला है।  ऐसे समय में प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह इस स्थिति में सकारात्मक रहकर रोज़े के असल भाव को जागृत करने क पूर्ण प्रयास करे और साथ ही खुदा से समस्त मानवजाति के लिए दुआ करे।

कुरान के अध्ययन से पता चलता है कि खुदा ने जैसे मुस्लिम समाज के लोगों के लिए उपवास अनिवार्य किया, वैसे ही यह उनसे पहले आए अनेक सभ्यताओं के लोगों पर भी अलग-अलग समय पर अनिवार्य था। आज हम देखते हैं कि दुनिया में किसी भी आस्था पर विश्वास रखने वाले अलग-अलग शक्ल में उपवास करते हैं। 

रमज़ान माह में उपवास के लिए जिस शब्द का अरबी भाषा में प्रयोग हुआ है उसे कहते हैं ‘सॉम’ , इसका सही अर्थ है ‘संयम’। यह रोज़े के असल भाव को दर्शाता है। इसमें न सिर्फ व्यक्ति को भोर से सूर्यास्त तक अपने खाने-पीने को रोकना है, साथ ही खुद को सांसारिक मोह से बचाकर भी रखना है। हज़रत मुहम्मद साहब का कथन है कि अगर व्यक्ति हर तरह के बुरे काम न त्यागे तो खुदा को ऐसे व्यक्ति के रोज़े की ज़रूरत नहीं। पैगंबर साहब के इस कथन से यह स्पष्ट हे जाता है कि रोज़ा सिर्फ खान-पान छोड़ने का या मस्जिद में इबादत करने का नाम नहीं बल्कि यह व्यक्तित्व विकस का दूसरा नाम है।

रोज़ा इस्लाम की सबसे उत्कृष्ट इबादत मानी गई है जिसका पालन हर मुसलमान को रमज़ान के पूरे महीने करना होता है। थोड़े से समय के लिए जब व्यक्ति खाना-पीना छोड़ देता है तब उसे एहसास होता है कि पूरा जीवन खुदा की देन है। हम प्रत्येक दिन जो भोजन करते हैं, उसको बनाने और हम तक पहुंचाने में प्रकृति और समाज के कई अंगों का महत्वपूर्ण योगदान है। इनके प्रति हमें कृतज्ञ होना आवश्यक है। यह भाव व्यक्ति में समाज और प्रकृति के साथ-साथ खुदा के प्रति कई गुना आभार पैदा करता है।

वास्तव में रमज़ान उस आध्यात्मिक अनुभव का नाम है जिससे इंसान समग्र दृष्टिकोण हासिल कर पाता है। कोरोना के इस मुश्किल वक्त में हर इंसान को चाहिए कि वह सकारात्मक रहकर रोज़े के वास्तविक भाव को जागृत करने का पूर्ण प्रयास करे…

हज़रत मुहम्मद साहब की एक हदीस में आता है कि ऐसे भी लोग हैं जो रोज़े रखते हैं और उनको उससे कुछ नहीं मिलता सिवाय भूख के और फिर कुछ ऐसे भी हैं जो रातों को जागकर इबादत करते हैं परंतु उनको इबादत से कुछ नहीं मिलता सिवाय निद्राहीन रात के। यह बात सोचने पर मजबूर करती है कि रमजान सिर्फ एक विधि का नाम नहीं जिसे व्यक्ति को लगातार 30 दिन करना है बल्कि वह ऐसे आध्यात्मिक अनुभव का नाम है जिसे सही प्रकार से समझने पर व्यक्ति समग्र दृष्टिकोण हासिल कर पाता है।

आज इतना भौतिकवाद व्याप्त है कि व्यक्ति के लिए इस जाल से निकल पाना लगभग असंभव हो चुका है। इंसान सुबह से शाम तक सिर्फ अपने और अपने परिवार के लिए जीता है। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो दूसरों के लिए उस स्तर पर सोच पाते हैं जैसा वे अपने घरवालों के लिए सोचते हैं इसीलिए रमज़ान के महीने में ज़कात  देने का आदेश हुआ। ज़कात प्रत्येक उस मुसलमान पर अनिवार्य बताई गई है जो उसके आवश्यक मानदंडों को पूरा करता हो। समाज में हमेशा एक ऐसा वर्ग रहा है जो दूसरों के मुकाबले आर्थिक तौर पर ज्यादा संपन्न होता है। इसी कारण से ज़कात ऐसे लोगों पर अनिवार्य की गई ताकि वे समाज के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं को विकसित करने में योगदान दे सकें।

वर्षों से चले आ रहे रमज़ान के महीने का संदेश आज भी वही है जो प्रारंभ में था कि व्यक्ति संसार में बेकाबू भागने के लिए नहीं आया बल्कि जीवन की महत्ता को समझने के लिए भेजा गया है। रोजा एक महीने का ऐसा प्रशिक्षण है जिसकी सफलता इस पर निर्भर करती है कि कैसे व्यक्ति पूरे साल खुद को नकारात्मक विचारों से दूर रखे जैसे उसने रमज़ान के महीने में रखा। रमज़ान में जैसे उसने ज़कात देकर समाज के विकस में योगदान दिया, वैसे ही रमज़ान के बाद भी उसको सदका अर्थात् दान के माध्यम से सामाजिक विकास में अपना योगदान देना है। रोज़े में एक खास इबादत होती है जिसे एहतेकाफ कहा जाता है, जहां रोज़ेदार खुद को घरवालों और दुनिया से अलग कर पूरा समय इबादत में लगाता हैं| एहतेकाफ हमेशा से मस्जिद में होता आ रहा था लेकिन इस बार (कोरोना से एहतियात में) पूरा रोज़ा ही मानो एहतेकाफ बन गया है, जहां व्यक्ति मस्जिदों में न रहकर अपने घर में इस भाव के साथ इबादत कर सकता है।