वक़्फ़ संशोधन अधिनियम- मुस्लिम समाज के लिए पुनर्विचार का समय
2 अप्रैल 2025 को लोकसभा ने नया वक्फ संशोधन विधेयक 2025 पारित किया और 3 अप्रैल 2025 को राज्यसभा ने भी इसे पारित कर दिया, जिससे यह एक अधिनियम बन गया। इन दो दिनों में संसद के दोनों सदनों में सांसदों के बीच काफी चर्चा हुई। एतिहासिक सन्दर्भों के हवालों को लेकर इस बात पर भी चर्चा हुई कि भारत में वक़्फ़ संपत्तित्यों से भारतीय मुस्लिम समुदाय के अधिकांश लोगों को कभी कोई विशेष लाभ नहीं पहुँचा।
वक्फ का मूल उद्देश्य धार्मिक या सामाजिक कल्याण के लिए अपनी संपत्ति को समर्पित करना है — जैसे मस्जिदें,स्कूल, अस्पताल, और गरीबों की सहायता। इसमें आमतौर पर भूमि या भवन जैसी संपत्तियों का दान शामिल होता है, जिसे फिर वापस लेने की कोई इरादा नहीं होता। इतिहास पे नज़र डालें तो पता चलता है कि वक्फ ने सामाजिक कल्याण और आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
वक्फ का आधार क़ुरान की उन आयतों से मिलता है जिन में दान देने पे ज़ोर दिया गया है। जैसा की सुराह अल-इमरान में जिस में अपनी सबसे अच्छी संपति दान में देने के लिए प्रेरित किया गया है। हदीसों में भी यह स्पष्ट है कि पैग़म्बर साहब ने ऐसे कार्यों को बढ़ावा दिया जिस में समाज का कल्याण हो सके। इस्लामिक इतिहास में भी सबसे पहले दर्ज किए गए वक्फ की तारीख़ हज़रत मुहम्मद साहब के जीवन से ही मिलती हैं जब उन्होंने अपना 600 खजूर के पेड़ों का एक बाग़, मदीना की जरूरतमंदों के लिए समर्पित कर दिया था।
एक अन्य प्रसिद्ध उदाहरण इस्लाम के दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर के जीवन से मिलता है, जिन्होंने खैबर की अपनी मूल्यवान भूमि को पैग़म्बर साहब के परामर्श पर वक्फ कर दिया था और उसकी उपज को गरीबों, मुसाफिरों और मदीना में आने वाले मेहमानों के लिए समर्पित कर दिया था। तब हज़रत उमर ने यह भी स्पष्ट किया था कि यह संपत्ति न बेची जाएगी, न विरासत में जाएगी। ऐसे ही इस्लाम के तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान ने भी अपने जीवन में पानी का एक कुआं ख़रीद के उसे समाज के लिए समर्पित कर दिया था।
इतिहास पढ़ के समझ आता है के कैसे प्रारंभिक मुस्लिम समाज द्वारा वक्फ को तेजी से अपनाया गया, वक़्फ़ उनके लिए इस्लामीक मूल्यों को जीवित रखने और समाज की व्यावहारिक ज़रूरतों को पूरा करने का एक आवश्यक साधन बन गया था।
वक्फ से लाभान्वित होने वाले लोग न केवल मुस्लिम होते थे बल्कि प्रत्येक धर्म व समाज से आते थे।
अब्बासीद साम्राज्य के दौरान वक्फ संस्था का व्यापक विकास हुआ। 9वीं शताब्दी से वक्फ का विस्तार लगभग समस्त इस्लामिक जगत में हुआ। इस काल में वक्फ का उद्देश्य विविध हो गया — अबासीद खलीफा हारून रशीद द्वारा बगदाद में “हाउस ऑफ विज़डम” (बैत अल-हिकमाह) तथा मिस्र में अल-अज़हर मस्जिद और विश्वविद्यालय जैसे शैक्षिक केंद्रों को वक्फ के माध्यम से स्थापित किया गया। अस्पतालों का निर्माण और रख-रखाव वक्फ से हुआ, जहां सभी के लिए मुफ़्त चिकित्सा सेवाएं दी जाती थीं। खलीफा अल-मामून ने विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए खगोलीय वेधशालाओं के लिए भी वक्फ स्थापित किए। अब्बासी युग में वक्फ से लाभान्वित होने वाले लाभरती विविध थे जैसे गरीब, छात्र, विद्वान, बीमार, मुसाफिर, अनाथ, पुस्तकालय, वैज्ञानिक संस्थान। समाज के कमजोर वर्गों जैसे बुज़ुर्ग, विकलांग, कुष्ठरोगी,
नेत्रहीन को भी वक्फ से आवश्यक सहायता प्रदान की जाती थी।
ओटोमन यानी उस्मानी शासन के दौरान, वक्फ संस्था समाज के और भी अधिक अभिन्न स्तंभ के रूप में विकसित हुई। इतिहास में ओटोमन युग को “वक्फ सभ्यता” भी कहा गया है। क्योंकि इस युग में वक़्फ़ ने समाज के हर क्षेत्र पर प्रभाव डाला जैसे मस्जिद, स्कूल, अस्पताल, सार्वजनिक रसोई घर, सराय, पशु कल्याण इत्यादि। यहाँ तक कि घोड़ों और पक्षियों के लिए भी वक़्फ़ बनाये गए। एक और महत्वपूर्ण बात जो ध्यान देने योग्य है, वे यह कि उस्मानी काल में महिलाएं वक्फ की स्थापना में आगे रहीं और उन्होंने अपनी निजी संपत्तियां भी इसके लिए समर्पित कीं। हुर्रम सुलतान जैसी प्रमुख महिलाओं ने प्रभावशाली वक्फ परिसरों की स्थापना में बड़ा योगदान दिया।
इतिहास में वक्फ संस्था ने एक परिवर्तनकारी और दीर्घकालिक भूमिका निभाई है। यह इस्लाम की शुरुआत से लेकर अलग-अलग युगों में उभरकर एक संपूर्ण सामाजिक आर्थिक प्रणाली बन गई। वक्फ से लाभान्वित होने वाले लोग न केवल मुस्लिम होते थे बल्कि प्रत्येक धर्म व समाज से आते थे। ऐतिहासिक दस्तावेज़ों और फतवों से यह पता चलता है कि ग़ैर-मुस्लिम समुदायों को भी वक्फ की सार्वजनिक सेवाओं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य आदि से हमेशा लाभ मिलता रहा।
लेकिन आज भारत में वक्फ की स्थिति क्या है? पिछले कई दशकों में ऐसा कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं मिलता जिसे वक्फ की सामाजिक उपलब्धि कहा जा सके। अधिकतर वक्फ संपत्तियों पर वे लोग क़ाबिज़ रहे जो प्रभावशाली थे और सत्ता के क़रीब थे। आम जनता हमेशा इससे अछूती रही।
हमने यहाँ इतिहास में वक्फ की भूमिका साझा इसलिए की ताकि यह समझा जा सके कि वक्फ का असली उद्देश्य क्या था। अबासीद काल के वक्फ ने अल-ख्वारिज्मी और अल-किंदी जैसे बड़े विद्वान विश्व को दिए, वहीं अगर भारत के वक्फ तंत्र पर नज़र डालें तो पिछले 75 वर्षों में यह केवल विवादों और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों में ही घिरा दिखा। फिर सवाल उठता है कि इसका ज़िम्मेदार कौन है? क्या मुस्लिम नेतृत्व से यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि इतनी बड़ी ज़मीन और अनेकों संस्थान होते हुए भी समाज को इससे कभी कोई लाभ क्यों नहीं पहुँचा?
जहाँ एक तरफ़ ओटोमन काल में इन्ही वक़्फ़ की जायदादों से समाज इतना समृद्ध हो गया था कि व्यापार मार्गों पर पेड़ों से दान की रकम लटकाई जाती थी ताकि समाज का कोई जरूरतमंद जो इनके लाभ से वंचित रह गया वे इस रकम को लेके जा सके और फिर भी उस रकम को कोई लेने वाला नहीं मिलता था। वहीं आज भारतीय वक्फ बोर्ड जिसे देश में ज़मीन संपति के मामले में तीसरे नंबर पर कहा जाता है, फिर भी भारत के मुस्लिम समुदाय के बहुत से लोग बुनियादी ज़रूरतों के लिए जूझते क्यों मिलते हैं। जहाँ एक तरफ़ कुछ लोग मस्जिदों और दरगाहों के बगल में आलीशान मकानों में रह रहे हैं और किराया भी नहीं देते या बहुत ही कम देते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ भारत में अनेकों लोगों के पास किराए का घर लेने के भी पैसे नहीं हैं। आख़िर समाज के ज़रूरतमंद हिस्सों को इनका लाभ कभी क्यों नहीं पहुँचा?
आज ये सवाल भारतीय मुस्लिम समुदाय को अपने नेतृत्व से पूछने की ज़रूरत है, की क्या वे हमेशा उन्हें एक वोटबैंक की शकल में ही देखते रहेंगे? या फिर उनके निजी जीवन की बेहतरी के लिए भी प्रयास करेंगे? एक मशहूर कथन है “अगर आप किसी व्यक्ति को रोटी देते हैं, तो आप उसे एक दिन के लिए भोजन देते हैं। लेकिन अगर आप उसे शिक्षा देते हैं, तो आप उसे जीवन भर के लिए आत्मनिर्भर बना देते हैं।” आज मुस्लिम समाज को एक ऐसे नेतृत्व की ज़रूरत है जो उनको आत्मनिर्भरता की तरफ़ प्रेरित करे ना की सुबह-शाम ऐसे मुद्दों में उलझाये रखें जिन से ना कभी उनका भला हुआ और ना ही कभी आगे होगा।